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उदिन्न्व॑स्य रिच्य॒तेंऽशो॒ धनं॒ न जि॒ग्युषः॑। य इन्द्रो॒ हरि॑वा॒न्न द॑भन्ति॒ तं रिपो॒ दक्षं॑ दधाति सो॒मिनि॑ ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud in nv asya ricyate ṁśo dhanaṁ na jigyuṣaḥ | ya indro harivān na dabhanti taṁ ripo dakṣaṁ dadhāti somini ||

पद पाठ

उत्। इत्। नु। अ॒स्य॒। रि॒च्य॒ते। अंशः॑। धन॑म्। न। जि॒ग्युषः॑। यः। इन्द्रः॑। हरि॑ऽवान्। न। द॒भ॒न्ति॒। तम्। रिपः॑। दक्ष॑म्। द॒धा॒ति॒। सो॒मिनि॑ ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:32» मन्त्र:12 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (हरिवान्) बहुत प्रशंसित मनुष्य युक्त (इन्द्रः) समर्थ राजा (सोमिनि) ऐश्वर्यवान् में (दक्षम्) बल (दधाति) धारण करता है (तम्) उसको (रिपः) शत्रुजन (न) नहीं (दभन्ति) नष्ट करते हैं जिस (अस्य) इस (जिग्युषः) जयशील के (इत्) उस के प्रति (अंशः) भाग (उत् रिच्यते) अधिक होता है उसको वह भाग (धनम्) धन के (न) समान (नु) शीघ्र धारण करता है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - जो राजा धनियों में जो ऐश्वर्य है, उसे दरिद्रियों में भी बढ़ाता है, उसको कोई नष्ट नहीं कर सकता है, जिसका अधिक पुरुषार्थ होता है, उसी को धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कि कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

यो हरिवानिन्द्रः सोमिनि दक्षं दधाति तं रिपो न दभन्ति यस्याऽस्य जिग्युषस्तमिदंश उद्रिच्यते तमंशो धनं नेव नु दधाति ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) (इत्) (नु) (अस्य) (रिच्यते) अधिको भवति (अंशः) भागः (धनम्) (न) इव (जिग्युषः) जयशीलस्य (यः) (इन्द्रः) समर्थो राजा (हरिवान्) बहुप्रशस्तमनुष्ययुक्तः (न) निषेधे (दभन्ति) हिंसन्ति (तम्) (रिपः) शत्रवः (दक्षम्) बलम् (दधाति) (सोमिनि) ऐश्वर्यवति ॥१२॥
भावार्थभाषाः - यो राजा धनिष्वैश्वर्यं दरिद्रेषु च वर्धयति तं हिंसितुं कोऽपि न शक्नोति यस्याऽधिकः पुरुषार्थो भवति तमेव धनप्रतिष्ठे प्राप्नुतः ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - धनिकांमध्ये जसे ऐश्वर्य असते तसे ऐश्वर्य जो राजा दरिद्री लोकांमध्येही वाढवितो, ते कोणी नष्ट करू शकत नाही. जो अधिक पुरुषार्थ करतो त्यालाच धन व प्रतिष्ठा प्राप्त होते. ॥ १२ ॥